Batukeshwar Datt: भगत सिंह ने यह पत्र अपने साथी “बत्तू” को लिखा था. बत्तू मतलब बटुकेश्वर दत्त.
Batukeshwar Datt: सेण्ट्रल जेल, लाहौर
अक्टूबर, 1930
प्रिय भाई,
मुझे सज़ा सुना दी गयी है और फाँसी का हुक्म हुआ है। इन कोठरियों में मेरे अलावा फाँसी का इन्तज़ार करने वाले बहुत-से मुजरिम हैं। ये लोग यही प्रार्थनाएँ कर रहे हैं कि किसी तरह वे फाँसी से बच जायें। लेकिन उनमें से शायद मैं अकेला ऐसा आदमी हूँ जो बड़ी बेसब्री से उस दिन का इन्तज़ार कर रहा हूँ जब मुझे अपने आदर्श के लिए फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने का सौभाग्य मिलेगा। मैं ख़ुशी से फाँसी के तख़्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूँगा कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से क़ुर्बानी दे सकते हैं।
मुझे फाँसी की सज़ा मिली है, मगर तुम्हें उम्रक़ैद। तुम ज़िन्दा रहोगे और ज़िन्दा रहकर तुम्हें दुनिया को यह दिखा देना है कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए सिर्फ़ मर ही नहीं सकते, बल्कि ज़िन्दा रहकर हर तरह की यातनाओं का मुक़ाबला भी कर सकते हैं। मौत सांसारिक मुसीबतों से छुटकारा पाने का साधन नहीं बननी चाहिए, बल्कि जो क्रान्तिकारी संयोगवश फाँसी के फन्दे से बच गये हैं उन्हें ज़िन्दा रहकर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि वे न सिर्फ़ अपने आदर्शों के लिए फाँसी पर चढ़ सकते हैं, बल्कि जेलों की अँधेरी कोठरियों में घुट-घुटकर हद दर्जे के अत्याचारों को भी सहन कर सकते हैं।
तुम्हारा,
भगतसिंह
Bhagat Singh letter to Batukeshwar Datt
Batukeshwar Datt: बटुकेश्वर दत्त जिन्हें आप हम भगत सिंह के साथ असेम्बली में बम फेंकने वाले साथी के रूप में जानते हैं. इस देश मे मृत्यु की पूजा की जाती रही है. बटुकेश्वर आज़ादी के बाद भी जिंदा रहे और देश उन्हें भूलता रहा. याद भी रखा तो भगत सिंह के साथी के रूप में. आज बटुकेश्वर दत्त की पुण्यतिथि है.
बटुकेश्वर दत्त मूल रूप से बंगाल के वर्धमान जिले के खण्डघोष थाने के ओआड़ी गांव के थे. 18 नवंबर 1911 में जन्मे बटुकेश्वर की शुरूआती पढ़ाई कानपुर के थियोसोफिकल हाई स्कूल में हुई. बाद में पृथ्वीनाथ कॉलेज से दत्त ने स्नातक किया. कानपुर उस दौर में क्रांति के लिहाज से मुख्य शहर था. इस का असर दत्त पर पड़ा. दत्त क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आने लगे. गैरीबाल्डी और मैज़िनी की क्रांति और देशभक्ति पर लिखी हुई किताबें पढ़ना दत्त को बहुत पसंद था.
साल 1924 में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने कानपुर में एक क्रांतिकारी संगठन ” हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ” का गठन किया. दत्त प्रभावित हो कर अपने साथियों विजय कुमार सिन्हा, अजय घोष और सुरेन्द्रनाथ पांडेय के साथ इस से जुड़ गए. इन सभी ने मिल कर कानपुर में “कानपुर जिम्नास्टिक क्लब” की स्थापना की. साथ ही एक हस्तलिखित पत्रिका “क्रांति” का सम्पादन करना शुरू कर दिया.
अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर दत्त पूरी तरह से क्रांति की राह में निकल पड़े. दत्त इतने बेहतर थे कि जल्द ही बाक़ी साथियों के बीच बहुत मशहूर हो गए.
बंगाल में एक बहुत मशहूर कवि हुए हैं नज़रुल इस्लाम. कानपुर शहर में जब पहली बार बटुकेश्वर और भगत सिंह की मुलाक़ात हुई तो ये बहुत अच्छे दोस्त हो गए. अब जिन कवि की हम बात कर रहे थे उसका रेफरेंस ये है कि दत्त नज़रुल की कविताएं भगत सिंह को सुनाते. भगत सिंह उन कविताओं को बहुत पसंद करते थे. दोनों ही युवक पढ़ने में रुचि रखते थे. और यही बात इन्हें करीब ले कर आती रही.
दत्त ने भगत सिंह को बंगाली सिखाई. दोनों साथ ही कार्ल मार्क्स को पढ़ना पसंद करते थे और दत्त इसी दौरान उन्हें बंग्ला सिखाते. नज़रुल की कविताएं और दत्त ने भगत सिंह पर प्रभाव छोड़ा और देखते ही देखते ये दोनों एक प्रसिद्ध जोड़ी कहलाये जाने लगे. दत्त के साथ भगत सिंह भी हिन्दुस्तान प्रजातंत्रिक संघ से जुड़ गए. इन दोनों ने प्रताप के लिए भी लिखना शुरू कर दिया. प्रताप उन दिनों कानपुर में क्रांतिकारियों का गढ़ था.
Batukeshwar Datt: कलकत्ता और श्रमिक आंदोलन
बटुकेश्वर दत्त की माता के देहांत के वक़्त वो वाराणसी के लिए निकल पड़े. वहाँ से कानपुर लौटने के बजाए वे कलकत्ता चले गए. कलकत्ता के म’आनी उस वक़्त क्रांति की खदान के रूप में थे. कलकत्ता में उन दिनों श्रमिक आंदोलन अपने उरूज पर था. और इसी आंदोलन में दत्त की मुलाक़ात ग़ज़ब के कम्युनिस्ट लीडर मुज़फ़्फ़र अहमद से हुई. दत्त कानपुर में पले बढ़े थे. उनकी हिंदी पर अच्छी पकड़ थी. मुज़फ़्फ़र अहमद ने उन्हें हिंदी भाषी श्रमिकों को संगठित करने का काम दिया. वे बंगाल श्रमिक संघ के सदस्य बने और उनके आंदोलन के लिए काम करना शुरू कर दिया.
साल 1928 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन का नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन किया गया. इस के पहले संगठन क्षेत्रीय थे. फ़िरोज़शाह कोटला के मैदान में देश भर के क्रान्तिकारियों की एक गुप्त बैठक में इस राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की गई. इसमें जोड़ा हुआ सॉशिएलिस्ट शब्द भगत सिंह का जोड़ा हुआ था.
Batukeshwar Datt: कलकत्ता में भगत सिंह और दत्त की मुलाक़ात
साइमन कमीशन के विरोध में लाठी चार्ज से लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए थे और उनका देहांत हो गया था. क्रांतिकारियों में इस बात का रोष था. और वे बदला चाहते थे. भगत सिंह ने साथियों राजगुरु, आज़ाद आदि के साथ मिल कर लाला लाजपत राय के हत्यारे स्कॉट को मारने का निश्चय किया. सकॉट की जगह सांडर्स को मार कर ही बदला पूरा किया गया. इस हत्या ने पूरी अंग्रेज सरकार को हिला कर रख दिया. क्रांतिकारियों को पकड़ा जाने लगा. ऐसे में भगत सिंह ने अपना सरदार वाला रूप हटाया और लाहौर से कलकत्ता निकल गए.
कलकत्ता पहुंच कर एक बार फिर भगत सिंह की मुलाक़ात बटुकेश्वर से हुई. दत्त, भगत सिंह को लेकर उन के पैतृक गांव ओवड़ी चले गए. जल्द ही पुलिस को इसकी भी ख़बर लग गई और दोनों एक गुप्त मार्ग से ही भूमिगत हो गए. जिस सुरंग का इस्तेमाल भागने के लिए इन दोनों ने किया वो अब भी गांव ओवड़ी में मौजूद है.
बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत
भगत सिंह के सुझाव पर एच एस आर ए ने असेम्बली में बम फेंकने का प्लान तैयार किया. बम किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए न हो कर बस अपनी बात रखने के लिए फोड़े जाने थे. इस काम के लिए पहले भगत सिंह और सुखदेव का नाम सुझाया गया था. मगर भगत सिंह चाहते थे कि उनके बाद सुखदेव पार्टी का काम सम्भाले और उन्होने अपने साथ बटुकेश्वर दत्त का नाम सुझाया.
3 से 6 अप्रैल 1929 तक भगत और दत्त साथ में असेम्बली जा कर वहाँ की कार्यवाही देखते. उन्होंने इन तीन दिनों में असेम्बली में अपने काम को अंजाम देने का पूरा प्लान तैयार कर लिया. इन दोनों ने दिल्ली के कश्मीरी गेट स्थित रामनाथ फोटोग्राफर के यहाँ अपनी तस्वीरें खिंचवाई. बाद में यही तस्वीरें हर जगह इस्तेमाल हुईं.
8 अप्रैल 1929 का रोज़ था. असेम्बली अपने वक़्त पर 11 बजे शुरू हुई. सरदार वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई विठ्ठल भाई पटेल स्पीकर थे. विट्ठल भाई पटेल जैसे ही अपनी सीट से उठे. भगत सिंह और दत्त ने न्यूज़ पेपर में लिपटे हुए बम निकाल कर वित्त मंत्री सर जॉर्ज सक्स्टर के ठीक पीछे वाली सीट पर फेंक दिया.
पूरा सदन इन दो युवकों के नारे से गूंज रहा था. “इंकलाब जिंदाबाद, साम्रज्यवाद मुर्दाबाद, दुनिया भर के कामगर एक हो”. दत्त ने गुलाबी रंग के कुछ पर्चे उड़ाए. पर्चे एच एस आर ए की तरफ़ से नोटिस थे जिनकी शुरुआत में लिखा था.
“बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है”.
बम फ़ेंकने के बाद दोनों युवक अपनी जगह पर बैठे रहे. इंस्पेक्टर जॉनसन और टेरी ने उन दोनों को गिरफ़्तार कर लिया. गिरफ़्तार होते ही उन दोनों फिर से इंक़लाब ज़िन्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए.
नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि ट्रेड डिस्प्यूट बिल 8 अप्रैल को पास हो रहा था और दो बम के साथ कुछ लाल पर्चे दर्शक दीर्घा से फेंके गए. इन बमों का उद्देश्य सिर्फ शोर करना था. ताकि उनकी बात सुनी जाए. वे किसी को नुकसान नहीं पहुंचने देना चाहते थे.
इस धमाके ने अंग्रेज सरकार को हिला दिया. बिहार में वही पर्चे बांटे गए. उनमें दोनों युवकों की तस्वीर थी. पब्लिक सेफ्टी बिल पास नहीं हो सका. भगत सिंह और दत्त को चांदनी चौक और रायसीना हिल्स में रखा गया. 22 अप्रैल को दोनों को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.
दिल्ली जेल में दोनों पर केस शुरू किया गया. अंग्रेज सरकार जल्द अज़ जल्द केस ख़त्म करना चाहती थी. दोनों युवक सुनवाई के दौरान नारे लगाते और अपनी बात रखते. अपने उद्देश्य उन्होंने कोर्ट के ज़रिए दुनिया तक पहुंचा दिए.
4 जून को शुरू हुई सुनवाई 12 जून को ख़त्म हो गई. भगत सिंह और दत्त को उम्रकैद की सजा सुनाई गई. भगत सिंह को मियांवाली और दत्त को लाहौर जेल भेजा गया.
कुछ दिनों बाद भगत सिंह पर सांडर्स हत्याकांड का मुकदमा भी शुरू हो गया और उन्हें भी लाहौर जेल भेज दिया गया.
भूख हड़ताल
लाहौर की जेल में दत्त और भगत ने भूख हड़ताल शुरू कर दी. वे चाहते थे कि उन्हें भी राजनैतिक कैदी का दर्जा मिले.
15 जून को यह भूख हड़ताल शुरू की गई. 30 जून को भगत सिंह -दत्त दिवस मानकर देश ने उन्हें समर्थन दिया. दत्त को इस दौरान बुरी तरह पीटा गया था. अनशन 2 महीने से ज़्यादा तक चला. क्रन्तिकारी यतींद्रनाथ 63 वें दिन 13 सितम्बर के रोज़ शहीद हुए. अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा.
लाहौर कॉनस्पिरेसी केस
लाहौर कॉन्सपिरेसी केस की सुनवाई स्पेशल मैजिस्ट्रेट में हुई. कठघरे में भगत सिंह, दत्त, जयदेव कपूर, सुखदेव, राजगुरु, जितेंद्र सान्याल, महावीर सिंह, आज्ञाराम, अजयघोष, प्रेम दत्त आदि खड़े हुए.
दत्त लाहौर केस में सबूतों के न होने पर बरी हुए. भगत सिंह ,सुखदेव, राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई. दत्त अब भी आजीवन कारावास की सजा पर रहे.
16 जुलाई 1930 के रोज़ लाहौर सेंट्रल जेल का माहौल ग़मगीन हो गया. दत्त को इस जेल से मुल्तान भेजा जा रहा था. दत्त अपने प्रिय भगत से अलग हो रहे थे. क्रांतिकारी दुखी थे. जब दत्त जाने के लिए तैयार हुए तो भगत सिंह ने अपनी डायरी निकाल कर बटुकेश्वर दत्त के ऑटोग्राफ लिए.
कालापानी
23 जनवरी 1933 को बटुकेश्वर दत्त और उन के साथियों
विजय कुमार सिन्हा, महावीर सिंह, कमलनाथ तिवारी, गया प्रसाद के साथ अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया गया. एच एस आर ए लगभग ख़त्म हो चला था. भगत सिंह , सुखदेव,राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा और आज़ाद शहीद हो चुके थे.
कालापानी पहुंच कर दत्त और उनके साथियों पर बहुत अत्याचार किया गया. उन्हें टॉर्चर किया जाता. दत्त ने एक बार फिर आवाज़ उठाई. उन्होंने कालापानी में एक बार फिर भूख हड़ताल शुरू कर दी. ये भूख हड़ताल कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के ख़िलाफ़ थी. फरवरी 1933 में यह भूख हड़ताल शुरू की गई और सभी 56 सी ग्रेड क़ैदी इस भूख हड़ताल में शामिल हो गए.
भूख हड़ताल के पांचवे दिन जेल अधिकारियों टॉर्चर की सारी हदें पार कर दीं. महावीर सिंह की उसी रात शहीद हो गए. मगर क्रांतिकारियों के हौसले नहीं मर सके. पटना के दो युवक भी शहीद हो गए. 46 दिन की भूख हड़ताल के बाद उनकी मांगें मान ली गईं.
साल 1937 में दत्त एक बार फिर अपने साथियों के साथ भूख हड़ताल पर गए. अब देश मे एक राष्ट्रीय सरकार थी. इसलिए यह मुद्दा अब राष्ट्रीय था. बिहार के मंत्री ने केंद्र को पत्र लिख कर इस ओर ध्यान दिलाया.
18 जनवरी 1938 को अंडमान जेल के सभी क़ैदीयो को भारत की विभिन्न जेलों में भेज दिया गया.
दत्त को बांकीपुर जेल भेज दिया गया. डॉ राजेंद्रप्रसाद की अध्यक्षता में पॉलिटकल प्रिजनर रिलीफ कमेटी की सिफारिश पर उन्हें बांकीपुर लाया गया.
8 सितम्बर 1938 को दत्त बांकी पुर से छोड़ दिये गए. बाद में दत्त भारत छोड़ो आंदोलन में जुड़े और फिर जेल गए. उन्हें 1945 में नज़रबन्द रखा गया. दत्त आज़ादी के बाद 1947 में रिहा हो गए.
आज़ादी के बाद
आज़ादी के बाद भी दत्त का जीवन संघर्षपूर्ण रहा. वे सरकारी स्कूल में शिक्षक रहे. 1 वर्ष के लिए साल 1963 में बिहार विधानसभा में रहे. इस दौरान उन्होंने कोई सुविधा नहीं ली. वे 1963-64 में भगत सिंह और ख़ुद को आतंकवादी बताए जाने से दुखी थे.
साल 1965 में दत्त भगत सिंह के गांव पहुँचे. खटकड़ कलां में 33 साल बाद ऐसा लगा जैसे भगत सिंह ख़ुद आये हों. भगत सिंह की माँ उन से ऐसे लिपट कर रोईं जैसे ख़ुद भगत से लिपटी हों.
दत्त को कैंसर था. 13 जुलाई 1965 को उनकी तबियत बिगड़ गई. उन्हें दिल्ली लाया गया. दिल्ली पहुंच कर उन्होंने कहा ” मैंने कभी नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फेंका वहां ऐसे लाया जाऊंगा.” भगत सिंह की माँ उनके साथ रहीं. 20 जुलाई 1965 को दत्त ने दुनिया को अलविदा कह दिया. 21 जुलाई को उन्हें हुसैनीवाला में भगत सिंह की समाधि के बगल में ही लाया गया और उनकी भी समाधि अब वहीं है.
भगत सिंह की माँ को दत्त से भगत जितना ही प्यार था और इसका कारण शायद यही था कि अपने जेल के दिनों में भगत सिंह ने अपनी माँ को लिखे एक पत्र में कहा था:
” मैं जा रहा हूँ, मगर अपने पीछे मैं बटुकेश्वर दत्त में अपना एक अंश छोड़ जा रहा हूँ”.
मानो भगत जानते रहे हों कि उनका “बत्तू” उनके बाद भी लड़ता रहेगा.
Very informative