तुम्हारा आना एक दो एक नम्बर की जर्जर बस पकड़कर
जिसमें पाँव रखने की जगह नहीं मिलती
और पिता को बहाने देना कि
सखी के साथ जा रही हूँ
कपड़े लेने
शनिचरी हाट में
मैं भी कितने हील-हुज्जत के बाद छूट पाता हूँ
घर से
मोगरे लेता हूँ
राह से
नोट तुड़वाकर
जो शेव के लिए जमा रखा था
कविता करने तक ठीक
पर माँ जल जाती है ये बनैला मुँह देखकर
सबका मूड उसी दिन बिगड़ा रहता है
जब तुम कहती हो
मिलने का मूड है
तुमसे दो पल का मिलना भी कितना दुष्कर लगता है
दूसरों को क्या कहूँ
तुम ख़ुद
जो इतनी मुश्किलों से मिलती हो
मिलते ही झटपट फूल लेती हो
और जाने लगती हो एक नज़र देखकर
परिश्रमों को कुछ न्याय तो दो
मैं अंशुक का रंग तक नहीं जान पाता और तुम पाँव मोड़ लेती हो
सुनो सुभाश्री!
मान सकता हूँ लजीली हो
और चुंबन के ख़्याल से ही तुम्हारी देह तपने लगती है
पर आलिंगन!
इंद्रनील की देह में कोई कंटक तो नहीं लगे
तलवों में महावर लगाने वाली सुभाश्री!
इसे मेरा हठ समझो या दुस्साहस
आज नहीं जाऊंगा गले मिले बिना
नहीं जाऊंगा
नहीं जाऊंगा
नहीं जाऊंगा।
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