Rajendra Lahiri : 6 अक्टूबर 1927 के रोज़ शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने यह पत्र अपने पिता को गोंडा जेल से लिखा था. इस पत्र में जितनी निर्भीकता नज़र आ रही है असल जीवन में लाहिड़ी इस से कहीं ज़्यादा निडर और बहादुर थे. हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए हुई सशस्त्र क्रांति के प्रबल हस्ताक्षर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का आज जन्मदिन होता है.
Rajendra Lahiri: राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का जन्म
इंटरनेट पर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के बारे में खोजेंगे तो उन के जन्म को ले कर कई अलग अलग जानकारियाँ सामने आएंगी. मसलन बहुत सी वेब साइट्स उन का जन्म साल 1901 का बताती हैं. ऐसे ही तारीख़ के मामले में भी राजेन्द्रनाथ का जन्म कहीं 19 तो कहीं 23 और कहीं 29 जून बताया जाता है. मगर ज़्यादातर ने 29 जून ही बताया है. तारीख़ और साल को पुख़्ता करने ले लिए हम ने भी रिसर्च की , तमाम वेबसाइट्स और किताबें खंगाली. तब जा कर पहुँचे संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर. वहां हमें मिली ” डिक्शनरी ऑफ मार्टियर्स ऑफ इंडियाज़ फ्रीडम स्ट्रगल (1857-1947)”. मतलब भारत के शहीदों का शब्दकोश. यह शब्दकोश 7 मार्च 2019 को जारी किया गया था. इसी शब्दकोश में हम ने राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को ढूंढा. इस शब्द कोष में लाहिड़ी का जन्म वर्ष 1892 का बताया गया है.
लाहिड़ी का जन्म वर्ष 1892 उन पर चलाये गए मुकदमों के कागज़ से लिया गया है. यानी संस्कृति मंत्रालय और कागज़ों के अनुसार राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का जन्म 29 जून साल 1892 में गाँव मोहनपुर, जिला पाबना, बंगाल में हुआ. पाबना अब बांग्लादेश में है. लाहिड़ी का जन्म एक सम्भ्रांत परिवार में हुआ था. मगर देश प्रेम उन्हें विरसे में मिला था. एक नाज़ुक मिज़ाज इंसान और चेहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट रखने वाले लाहिड़ी अपने पिता और चाचा से बहुत प्रेरित थे.
साल 1909 में पढ़ाई के लिए बनारस आये
जिस वक्त राजेन्द्रनाथ का जन्म हुआ उनके पिता क्षिति मोहन शर्मा कारावास में बंद थे. उन पर बंगाल में चल रहे अनुशीलन समिति की गुप्त गतिविधियों में शामिल होने के मुकदमे थे. राजेन्द्र धीरे धीरे बड़े हुए और साल 1909 में उन्हें पढ़ाई के लिए वाराणसी भेजा गया. बनारस में उन के पिता की एक बड़ी जागीर थी. लाहिड़ी बनारस पढ़ने आये थे , उन्होंने अपना स्नातक सेंट्रल हिन्दू कॉलेज से पूरा किया. जिस वक़्त लाहिड़ी बनारस में थे बनारस क्रांति का गढ़ हुआ करता था. बनारस में क्रांतिकारी गतिविधियों को गुप्त तरीके से मूर्त रूप दिया जाता था.
लाहिड़ी बनारस में पढ़ते हुए भी देश प्रेम का परिचय दे रहे थे वे बौद्धिक बहसें करते, स्वतन्त्रता की बात करते और लिखते भी. ऐसे में ही उन पर शचीन्द्रनाथ सान्याल की नज़र पड़ी. शचीन्द्रनाथ सान्याल HRA मतलब हिंदुस्तान रेपब्लिकन आर्मी का गठन किया था. लाहिड़ी से प्रभावित हो कर सान्याल ने उन्हें पत्रिका बंगवाणी का सम्पादन कार्य दे दिया. साथ ही उन्होंने पत्रिका शंख का भी काम देखा. यह दोनों पत्रिकाएं सान्याल के देख रेख में प्रकाशित होती थीं. लाहिड़ी ने हर महीने निकलने वाली हस्तलिखित पत्रिका अग्रदूत के लिए भी लिखा. लाहिड़ी बंगाल साहित्य परिषद के सचिव रहे.
Rajendra Lahiri : लाहिड़ी एच आर ए में रहते हुए बौद्धिक बहसों में हिस्सा लेते थे.
लाहिड़ी एच आर ए में रहते हुए बौद्धिक बहसों में हिस्सा लेते थे. बहसों में एक ओर जहाँ बिस्मिल और सान्याल जैसे धर्म को साथ ले कर क्रांति की बात कहते वहीं लाहड़ी और उन के साथी मन्मथ नाथ गुप्त धर्म को क्रांति की राह में रोड़े के तौर पर देखते. बिस्मिल हमेशा उन से कहते कि हम हू ब हू रशियन क्रांति की नकल नहीं कर सकते. हिंदुस्तान में क्रांति धर्म को साथ ले कर की जा सकती है.
लाहिड़ी उन की बातों से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते. एच आर ए के सह संस्थापक जोगेश चन्द्र चटर्जी अपनी आत्मकथा “आज़ादी की खोज में ” लिखते हैं : “राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी एक ग़ज़ब का क्रांतिकारी था. उस ने रूढ़िवादियों और आडम्बर के खिलाफ विद्रोह किया. वो ब्राम्हण थे मगर उन्होंने अपना जनेऊ उतार कर फेंक दिया. बिना किसी झिझक के पोर्क और बीफ़ का सेवन किया. उन का मानना था कि ये आडम्बर और रूढ़ियाँ विकास और क्रांति की राह में बाधा हैं. यह एक सच्चे क्रांतिकारी निशानी थी.”
समाज को चुनौती देते हुए बीफ़ और पोर्क खाया
जोगेश चन्द्र ने जो बात अपनी आत्मकथा में कही उस बात की पुष्टि मन्मथ नाथ गुप्त की आत्मकथा “दे लिव देंजरसली” में भी की. गुप्त लिखते हैं “हम समाज को चुनौती देते हुए बीफ़ और पोर्क खाते थे. मगर हमारे ऐसा करने से दल के सभी सदस्य इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे. पुराने सदस्य , युवा सदस्यों के इस मांस खाने का समर्थन नहीं करते मगर उन्होंने कभी अपने विचार हम युवा सदस्यों पर नहीं थोपे.”
जल्द ही लाहिड़ी को एच आर ए का वाराणसी जिला संयोजक बना दिया गया. लाहिड़ी जब एच आर ए के सदस्य थे तो धन की बेहद कमी थी. एच आर ए के सदस्य डकैतियां कर के धन इकट्ठा करते थे. बिचपुरी, बमरौली,शेरगंज जैसे इलाकों में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में जो डकैतियां हुईं , लाहिड़ी उन में मुख्य रूप से शामिल रहे थे.
1925 के रोज़ अंग्रेज़ी ख़ज़ाने को काकोरी में लूटा
9 अगस्त भारत की आज़ादी की लड़ाई में एक बहुत बड़ा दिन है. 9 अगस्त 1897 को दामोदर चापेकर की गिरफ़्तारी हुई, जो भारत के पहले शहीद बने. 9 अगस्त 1925 के रोज़ अंग्रेज़ी ख़ज़ाने को काकोरी में लूटा गया. बाद में 9 अगस्त 1942 के दिन ही भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई. 1897 के वक़्त लाहिड़ी बहुत छोटे थे, और 1942 तक उन्हें शहीद हुए 15 बरस बीत चुके थे. मगर 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी कांड में वे शामिल थे. वे इस लूट में एक अहम किरदार थे. काकोरी लूट के लिए ट्रेन की चेन खींचने वाले लाहिड़ी ही थे.
काकोरी की डकैती अंग्रेज़ों के मुंह पर करारा तमाचा थी. एच आर ए ने डकैती करने के बाद पहले अपने कर्ज़ चुकाए उस के बाद नए हथियार ख़रीदने शुरू कर दिए. लेकिन अंग्रेज़ों ने इस लूट के बाद धर पकड़ करनी शुरू कर दी थी. काकोरी की डकैती के बाद बिस्मिल चाहते थे कि दल के पास अच्छे हथियार हों. उन्होंने लाहिड़ी से कहा कि वो बम बनाना सीखें. लाहिड़ी को कलकत्ते भेजा गया. दक्षिणेश्वर मंदिर के नज़दीक ही वे बम बनाना सीखने लगे.
इसी दौरान एक अनहोनी हो गई. बम बनाते समय किसी साथी की लापरवाही की वजह से एक बम फट गया. धमाका बहुत तेज़ था. कुछ ही देर में वहां पुलिस आ गई. लाहिड़ी आठ अन्य साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिए गए. काकोरी में शामिल अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े जा चुके थे.
4 जनवरी 1926 को रिंग थिअटर लखनऊ में शुरू हुई सुनवाई
सुनवाई 4 जनवरी 1926 को रिंग थिअटर लखनऊ में शुरू हुई. लखनऊ वालों के लिए ये आज जनरल पोस्ट आफिस है.आई सी एस हैमिल्टन की स्पेशल कोर्ट ने 6 अप्रैल 1927 को फ़ैसला सुनाया : ” राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी षड्यंत्र के नेताओं में से एक है. उस ने कलकत्ता में बम बनाना सीखा. रामप्रसाद बिस्मिल के साथ डकैती में हिस्सा लिया. वो क्रांति का नेतृत्व कर रहा था इस लिए उस की ज़िम्मेदारी इस मामले में बहुत ज़्यादा है. इसलिए धारा 121 (A) के तहत इन्हें कालापानी की सजा दी जाती है. वो षड्यंत्र में सीधे तौर पर शामिल था इस लिये इसे अहमद अली की हत्या का भी बराबर ज़िम्मेवार माना जाता है. इस लिए इसे मौत की सजा सुनाई जाती है. अगर लाहिड़ी चाहें तो 1 हफ़्ते में अपील कर सकते हैं.”
अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान, राम प्रसाद बिस्मिल , रोशन सिंह को क्रमशः फैज़ाबाद, गोरखपुर और इलाहाबाद में फांसी दे दी गई.
इस फैसले के बाद 19 दिसम्बर 1927 के रोज़ अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान, राम प्रसाद बिस्मिल , रोशन सिंह को क्रमशः फैज़ाबाद, गोरखपुर और इलाहाबाद में फांसी दे दी गई. लाहिड़ी को भी इसी दिन फाँसी दी जानी थी मगर अंग्रेजों को इस बात की भनक लग गई थी कि आज़ाद और मन्मथ नाथ लाहिड़ी को भगाने गोंडा आ चुके थे और लाल बिहारी टण्डन के यहाँ के एक बैठक भी की थी. अंग्रेज़ों ने डर से लाहिड़ी को दो दिन पहले 17 दिसम्बर को ही गोंडा जेल में फाँसी दे दी.
लाहिड़ी अपने जेल के दिनों में आस्तिक हो गए थे. वे पूजा पाठ करते, गीता पढ़ते और व्यायाम भी करते. लाहिड़ी के भाई उन की फांसी से एक दिन पहले जब उनसे मिले तो लाहिड़ी ने उन से अपनी अंतिम इच्छा कही. “मेरा अंतिम संस्कार वैदिक रीतियों से करना. और जब मुझे फांसी के लिए ले जाया जाएगा तो मैं वंदे मातरम के नारे लगाऊंगा जिनकी प्रतिध्वनि मुझे जेल की दीवारों के बाहर से आनी चाहिए, तब ही मैं चैन से मर पाऊंगा”.
16 दिसम्बर की रात लाहिड़ी गीता पढ़ रहे थे जब उन के पास जेलर ने आ कर बताया कि कल उन्हें फांसी दी जाएगी. लाहिड़ी मुस्कुराए. कहा
“मेरी फांसी तो 19 को थी, लगता है अंग्रेज सरकार को मुझ से किसी प्रकार का भय है. आप जाइये, मैं तैयार रहूँगा. मैं जेल से नहीं भागूंगा”.
ये 17 दिसंबर की सुबह थी, लाहिड़ी ने स्नान किया, पूजा की भागवत गीता पढ़ी और व्यायाम किया. उन्हें देख कर मैजिस्ट्रेट ने पूछा पूजा और स्नान तो मैं समझता हूं मगर व्यायाम का प्रयोजन मुझे समझ नहीं आ रहा, क्या तुम बता सकते हो?”
लाहिड़ी मुस्कुराए. उन्होंने जवाब दिया “ये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. हम हिन्दू पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं. अगर मैं दोबारा पैदा हुआ तो मुझे स्वस्थ पैदा होना होगा ताकि मैं बार बार अपने प्राण इस देश पर वार सकूँ. मुझे उम्मीद है आप मेरा ये संदेश अपने देश के लोगों तक पहुंचा देंगे.”
लेख की शुरुआत लाहिड़ी के एक पत्र से हुई थी , तो अंत भी एक पत्र से करते हैं. प्रिवी कॉन्सिल के आगे उनकी एक अपील रिजेक्ट होने पर यह पत्र लाहिड़ी ने 14 दिसम्बर को अपने मित्र को लिखा था. लाहिड़ी ने लिखा :
“कल मुझे ख़बर मिली कि प्रिवी कौंसिल में की गई मेरी अपील ख़ारिज कर दी गई है. तुम ने मेरा जीवन बचाने के लिए बहुत कुछ किया है. पर अब ऐसा लगता है कि देश को मेरे प्राण की ज़रूरत है. मृत्यु क्या है? यह तो महज एक नई ज़िंदगी है. इसलिए मुझे मौत से डरने की क्या ज़रूरत? यह तो शाश्वत है. वैसे ही जैसे सुबह का सूर्य. मुझे उम्मीद है कि मेरी मौत बेकार नहीं जाएगी.”
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