“आपातकाल की घोषणा होने से महज चार महीने पहले इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता और लचीलेपन की तारीफ़ में कसीदे पढ़े थे. मगर अगले चार महीनों में ही सब कुछ उलट गया. भारतीय लोकतंत्र साल 1975 में कश्मीर घाटी और भारतीय संघ में सद्भाव तो बना सकता था मगर उस में इतनी क्षमता नहीं थी कि वो जेपी और इंदिरा गांधी के रिश्तों को सुधार सके.”
रामचन्द्र गुहा एक सुविख्यात इतिहासकार हैं. उनकी किताब इंडिया आफ्टर गांधी से ही ऊपर लिखा गया पैराग्राफ लिया गया है. सन्दर्भ यह कि आज 25 जून है. 25 जून मतलब भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का एक ऐसा दिन जिसने बहुत कुछ बदल दिया.
25 जून की आधी रात को देश सेंसरशिप और आपातकाल के हाथों में चला गया था. आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय भी कहा जाता रहा है. लेकिन आपातकाल किन परिस्थितियों और किन वजहों से वजूद में आया था? आइए समझते हैं.
लोकनायक और विद्यार्थी आंदोलन
साल 1973 से ही देश महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से जूझ रहा था. साल 1974 में गुजरात सरकार भंग करने की मांग को ले कर गुजरात में एक बहुत बड़ा आंदोलन हुआ. इस आंदोलन को नवनिर्माण आंदोलन कहा गया था. इस आंदोलन के हिंसक हो जाने पर मुख्यमंत्री को इस्तीफ़ा देना पड़ा और गुजरात राष्ट्रपति शासन के हाथों चला गया.
गुजरात में हुए इस आंदोलन का असर बिहार पर पड़ा. उस वक़्त की जनसंघ के छात्र संगठन ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ आंदोलन में कूद चुका था. विद्यार्थी परिषद और अन्य गैर कम्युनिस्ट छात्र संगठनों ने एक मोर्चा बनाया. नाम रखा ” छात्र संघर्ष समिति”. और फिर सामबे आता है एक बहुत बड़ा नाम. ‘लोकनायक’ का नाम.
लोकनायक मतलब समाजवादी सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण. कइयों के लिए सिर्फ जे पी नारायण. उस वक़्त जे पी 72 वर्ष के थे , छात्र संघर्ष समिति ने उन्हें अपना नेता बनने को कहा, जिसे उन्होंने स्वीकार लिया.
युवा वर्ग सरकार से बेहद रुष्ट था और उन्होंने अहिंसक और नियोजित रूप से जेपी को अपना नेता चुना. उनके पीछे लामबंद हो कर सरकार के सामने अपनी मांगे रखने लगे. छात्र आंदोलन का असर शुरुआती तौर में बिहार और गुजरात में था. कुछ ही दिनों में छात्र आंदोलन इन दो राज्यों की सीमाओं से बाहर निकल कर पूरे देश में क्रांति की शक्ल ले चुका था.
यह आन्दोलन इतना शक्तिशाली था कि इसने राज्य सरकारों समेत इंदिरा सरकार को भी हिला कर रख दिया था. लेकिन यह अकेली समस्या नहीं थीं जिस ने इंदिरा को परेशान किया हुआ था.
राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी
इंदिरा देश की प्रधानमंत्री थीं. इंदिरा रायबरेली से चुनाव जीत कर आई थीं उनके सामने समाजवादी प्रतिद्वन्दी राजनारायण थे जो बहुत बड़े अंतर से हारे थे. 1971 में रायबरेली के इसी चुनाव में इंदिरा की जीत को राजनारायण ने चुनौती दी थी. यह चुनौती कानूनी थी.राजनारायण ने अपनी याचिका में इंदिरा पर ‘चुनावी अनियमितता’ का आरोप लगाया था.
19 मार्च 1975 के दिन इंदिरा गांधी को अदालत में गवाही देना पड़ा. रामचन्द्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में ही लिखते हैं कि 12 जून की सुबह इलाहाबाद हाई कोर्ट के कमरा नंबर 15 में न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने सुनवाई शुरू की. यह वही कमरा था जहां कभी इंदिरा के पिता और दादा ने वकालत की थी. इंदिरा पर सरकारी मशीनरी का चुनाव में दुरुपयोग करने का आरोप था. उन्हें 14 आरोपों में से 12 आरोपों से बरी कर दिया. जिन दो आरोपों में उन्हें दोषी पाया गया उनमें से पहला यह था कि उनके चुनाव प्रभारी यशपाल कपूर चुनाव प्रचार के वक़्त भी सरकारी सेवा में नियुक्त थे और दूसरा यह कि इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार में उत्तर प्रदेश सरकार की मदद से एक ऊंचा मंच बनवाया था ताकि वह जनता को प्रभावित कर सकें.
अदालत ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया. जस्टिस सिन्हा के इस फैसले ने जेपी आंदोलन को और हवा दी. हालांकि जस्टिस सिन्हा के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. 23 जून को सुनवाई शुरू हुई और अगले दिन सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर सशर्त रोक लगा दी. उन्होंने कहा याचिका की सुनवाई पूरी होने तक इंदिरा सदन में तो जा सकती हैं पर सदन की वोटिंग्स में भाग नहीं ले सकतीं.
देश में इस फैसले के बाद जेपी और उनके साथियों ने इंदिरा के इस्तीफे की मांग और तेज़ कर दी. इस्तीफा नहीं देने की स्थिति में जेपी ने 25 जून को एक अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन आह्वान किया. यह आह्वान दिल्ली के राम लीला मैदान में किया गया. जेपी ने इस आह्वान में दिनकर की मशहूर कविता की पंक्ति “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” बोली.
जे पी ने इस आह्वान में दिए भाषण में एक और महत्वपूर्ण बात कही ” मुझे इसका डर नहीं है और मैं आज इस रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं ताकि कुछ दूर, संसद में बैठे लोग भी सुन लें. मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है”.
25 जून की आधी रात इंदिरा ने संजय गांधी, हरिराम गोखले आदि के साथ बात कर ‘आंतरिक उपद्रव ‘ की आशंका को मद्देनज़र रखते हुए आर्टिकल 352 को इस्तेमाल करने की बात कही. इसके बाद राष्ट्रपति फखरुद्दीन ने आपातकाल लागू कर दिया.
आपातकाल की घोषणा और उस के बाद
26 जून की सुबह इंदिरा गांधी ने रेडियो पर समूचे देश को आपातकाल की सूचना दी. गिरफ्तारियां शुरू हुईं सबसे पहले जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई को गिरफ्तार किया गया. जेपी को सुबह चार बजे गिरफ्तार किया गया था. गिरफ्तार होने पर जेपी ने अपने साथी राधाकृष्ण के ज़रिए लोगों को एक संदेश दिया :” विनाश काले विपरीत बुद्धि”.
सभी अखबारों की बिजली काट दी गई थी. उन्हें सेंसरशिप के तहत ले आया गया. वे कुछ भी छापना चाहते तो उन्हें अनुमति की ज़रूरत पड़ती. संजय गांधी के किसी पद पर न रहने के बाद भी सरकारी काम मे दखल दी गई. नसबंदी कार्यक्रम चलाये गए.
चारों तरफ सिर्फ पुलिस थी. कई नेता अंडर ग्राउंड थे, कई नज़रबन्द, और बहुत से गिरफ़्तार. आपातकाल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन पर भी गिरफ्तारियां हो जाती. पत्रकारों को गिरफ़्तार कर लिया जाता. अपने नेता का नाम लेने और भी गिरफ्तारियां हुईं. एक रोचक किस्सा मेरे दादा ने भी मुझे सुनाया था,मध्य प्रदेश रीवा के किसी इलाके में कुछ सन्त नहा कर ‘नारायण -नारायण’ का जाप कर रहे थे, पुलिस ने उन्हें भी उठा लिया क्योंकि ‘नारायण’ लफ्ज़ उनके लिए जयप्रकाश का परिचायक था.
आर एस एस और जमात ए इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया गया. जिन्हें गिरफ़्तार किया गया था वे अपनी गिरफ्तारी के लिए अदालत में चुनैती भी नहीं दे सकते थे. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों को भी चुनौती नहीं दी जा सकती थी. हालांकि आपातकाल में भी विरोध के स्वर मुखर रहे स्टेट्समैन और इंडियन एक्सप्रेस ने सेंसरशिप का विरोध किया. मेनस्ट्रीम और सेमिनार जैसे पत्रिकाओं ने झुकने की अपेक्षा बंद हो जाना बेहतर समझा. हिंदी लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने अपना पद्मश्री लौटा दिया.
आपातकाल अगले दो सालों तक रहा , इन दो सालों में देश की स्थिति गड़बड़ हो चली थी, लोगों ने इंदिरा पर यह आरोप लगाए कि निजी स्वार्थ के लिए इंदिरा ने आपातकाल थोप दिया था. वे बस अपनी कुर्सी बचाना चाहती थीं. साल 1977 में आपातकाल हट गया, लोग इंदिरा से खिसियाए हुए थे और यह उसी साल चुनाव में नज़र भी आया इंदिरा अपनी ही सीट से हार गईं रायबरेली से. संजय अमेठी से हारे. जनता पार्टी ने 295 सीट जीतीं, और मोरारजी देसाई देश के पहले ग़ैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बनाये गए.
बहुत शानदार लेखनी
आपातकाल के पहले, आपातकाल के बीच और आपातकाल के बाद के सारे पहलुओं को संछिप्त में वर्णित किया है। ऐसी संक्षिप्त जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।