कर्ण को लेकर भारतीय मानस में बहुत सारी भ्रंतियाँ प्रसृत हैं। जिसका कारण संस्कृतेतर कवियों की कविताएं और टीवी सीरियल्स में दिखाई गई बातें हैं, हिंदी के महान कवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की रश्मिरथी में भी बहुत सारी बातें उनकी अपनी कल्पना की उपज हैं, जो कि एक काव्य में आवश्यक भी हैं, और यह कवि का स्वातंत्र्य भी है।यही शिवाजी सावंत के हाल है। वास्तव में भारतीय समाज के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि उसे उस भाषा का ज्ञान ही नहीं है जिसमें उसकी मूल बातें और प्राचीन इतिहास है, इसलिए वो उन्ही बातों को मान लेता है जो सिरियल्स और विभिन्न लेखक किसी कृति में लिख देता है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि आजकल हम किसी के लिखे उपन्यास या कहानी में लिखी बातों को ऐतिहासिक तथ्यों के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। हमारी परम्परा महाभारत और रामायण (वाल्मीकि) को इतिहास कहती है, काव्यग्रन्थ नहीं। इनको उपजीव्य मानकर जो अन्य काव्य,नाटक,गद्य ग्रन्थ लिखे गए वो काव्य-तत्व के अधीन हैं। किंतु हम आज कहाँ महाभारत पढ़ते हैं, किसी ने भ्रान्ति फैला दी कि महाभारत पढ़ने से घर मे लड़ाई होती है, तो हम भोले लोगों ने मान लिया,, हद है भाई। ख़ैर तो महाभारत के आधार पर कर्ण को लेकर कुछ बातें करनी हैं, जो कि अधोलिखित बिंदुओं पर होंगी:–
1- कर्ण किसी तिरस्कृत,ग़रीब निम्न-जाति का नहीं था। और “सूत” शब्द का अर्थ
2- कर्ण को धनुर्विद्या, शिक्षा के लिए द्रोणाचार्य ने कभी नहीं भगाया, बल्कि उसको शिक्षा दी
3- कर्ण ने द्रौपदी स्वयंवर में बाक़ायदा भाग लिया था
4- प्रायः पांडवों को अपमान करना
5- द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की आज्ञा कर्ण के द्वारा देना
6- द्रौपदी को खींचा जाता है देख हँसना और उसे दासी कहकर मज़ाक उड़ाना, उसको वेश्या कहना
7- कवच-कुंडल दान नहीं बल्कि लेनदेन की तरह हुआ
8- शोकाकुल पांडवों पर हमला करने का षड्यंत्र
9- कई लोगों से कई बार उसकी पराजय
अब इन सभी बिंदुओं पर क्रमवार आते हैं:-
1- कर्ण किसी तिरस्कृत,ग़रीब निम्न-जाति का नहीं था।”सूत” शब्द का अर्थ:-
महाभारत में स्प्ष्ट उल्लेख है कि कर्ण के पिता “अधिरथ” जी सम्राट “धृतराष्ट्र” के मित्र थे, वे कोई तिरस्कृत,छोटे,ग़रीब, शोषित, पीड़ित व्यक्ति नहीं थे, उनका तथा उनकी पत्नी राधा (कर्ण की पालनकर्त्री माँ ,जिसके कारण कर्ण राधेय कहलाया) वो भी बहुत प्रसिद्ध और सम्मानित महिला थीं, उनके लिए महाभारतकार ने “महाभागा” जैसा भारीभरकम शब्द रखा है :-
एतस्मिन्नेव काले तु धृतराष्ट्रस्य वै सखा।
सूतोऽधिरथ इत्येव सदारो जाह्नवीं ययौ ।।
तस्य भार्याऽभवद्राजन् रूपेणासदृशी भुवि।
राधा नाम महाभागा न सा पुत्रमविन्दत।
–आरण्यक पर्व
इसका भावार्थ है सम्राट धृतराष्ट्र के प्रियमित्र सूत-अधिरथ अपनी पत्नी के साथ गङ्गा-तट पर गए, राधा नामक उनकी महान ऐश्वर्यशालिनी पत्नी के समान धरती पर कोई दूसरी रूपमती नहीं थी, लेकिन उनको पुत्रप्राप्ति नहीं हुई थी। इससे स्पष्ट है कि अधिरथ और राधा कोई दास या दासी नहीं थे,वे सम्माननीय थे तत्कालीन “राजा के मित्र” थे।
अब इसमें जो “सूत” शब्द का प्रयोग मिलता है उसको लेकर चिल्लाने वाले ये समझें कि सूत शब्द का अर्थ होता है – एक तो इसका अर्थ सूर्य होता है दूसरा जो कि यहां ध्यातव्य है वह है “क्षत्त्रियात् विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः अश्वसारथ्यमेवैतेषां जीविका ।” (इसके प्रमाण के लिए अमरकोश,शब्दकल्पद्रुम,वाचस्पत्यम आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं), अर्थात क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से जो पुत्र उतपन्न होता है वह “सूत” कहलाता है, और वह घोड़ों के व्यापार, उनसे सम्बंधित कार्य करता है, तथा युद्ध मे वीरों की भांति रथों के संचालन का कार्य करता है। तो यह एक कौशल (स्किल), रोज़गार-परक श्रेणी थी, कोई जाति आदि नहीं, और इनका सम्मान औऱ पद एक योद्धा की तरह होता था। सूत को तो वैश्य से ऊंचा माना जाता था:-
ब्राह्मण्यां क्षत्रियाञ्जातः सूतो भवति पार्थिव ।
प्रातिलोम्येन जातानां स ह्येको द्विज एव तु ।।
रथकारमितीमं हि क्रियायुक्तं द्विजन्मनाम्।
क्षत्रियादवरो वैश्याद्विशिष्ट इति चक्षते ।।
जहाँ के (विराट पर्व) ये पद्य हैं वहीं आगे लिखा भी है कि सूत लोग तो राजा भी होते थे ,देखिये:-
सूतानामधिपो राजा केकयो नाम विश्रुतः।
राजकन्यासमुद्भूतः सारथ्येऽनुपमोऽभवत्
(सूतों का केकय नाम का प्रसिद्ध राजा हुआ)
और तो और जो भी प्रतिलोम जातियां (संकर वर्ण) हैं उनमें सूत को सर्वाधिक उत्तम द्विज (ब्राह्मण) तक कह गया है।
सारथी तो ब्रह्मा भी बने, कैकेयी भी बनी, कृष्ण भी बने,स्वयं कर्ण के सारथी मद्रराज जी थे, आदि आदि उदाहरण हैं। तो यह बात बिल्कुल ही भ्रांत है कि कर्ण किसी दासी का पुत्र, अपमानित जाति का ग़रीब व्यक्ति था। उसके माता पिता सम्राट के मित्र और सम्मानित व्यक्तित्व थे। पर हाय संस्कृत से दूर सीरियल और कहानी से अपना इतिहास पढ़ने वाली भरतीय जनता!
2- कर्ण को धनुर्विद्या, शिक्षा के लिए द्रोणाचार्य ने कभी नहीं भगाया, बल्कि उसको शिक्षा दी :- बहुत विलाप करते हैं कुछ क्रांतिकारी जन कि कर्ण को द्रोण ने नीची जाति के कारण भगा दिया, उसको शिक्षा नहीं दी, इस पर देखे कि कर्ण को अन्य सभी राजकुमारों की तरह ही द्रोण के पास शिक्षा के लिए ले जाया गया और वहां उसने द्रोण से शिक्षा प्राप्त की :-
स बालस्तेजसा युक्तः सूतपुत्रत्वमागतः
चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठे धनुर्वेदं गुरौ तव ।। (शांतिपर्व)
अर्थात वही तेजस्वी बालक सूतपुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ और उसने अङ्गिरागोत्र के श्रेष्ठ ब्राह्मण द्रोण से “धनुर्वेद” की शिक्षा प्राप्त की।
और देखिये:-
राजपुत्रास्तथा चान्ये समेत्य भरतर्षभ।
अभिजग्मुस्ततो द्रोणमस्त्रार्थे द्विजसत्तमम्।।
वृष्णयश्चान्धकाश्चैव नानादेश्याश्च पार्थिवाः।
सूतपुत्रश्च राधेयो गुरुं द्रोणमियात्तदा।।
-महाभारत आदिपर्व (131 /110-11)
अर्थात राजकुमार लोग और अन्य सभी युवा भी अस्त्र शिक्षालेने द्रोण के पास आये, वृष्णिवंशी, अंधकवंशी, बहुत से देशों के राजकुमार और राधा के पुत्र कर्ण भी द्रोण के पास शिक्षा लेने के लिए आये।
और तो और कर्ण ने वेद आदि सभी शास्त्रों की विधिवत शिक्षा ली हुई थी , श्रीकृष्ण उसके ज्ञान की प्रशंसा करते हुए कहते हैं:-
उपासितास्ते राधेय ब्राह्मणा वेदपारगाः।
तत्त्वार्थं परिपृष्टाश्च नियतेनानसूयया ।।
त्वमेव कर्ण जानासि वेदवादान्सनातनान् ।
त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः ।।
— उद्योगपर्व 140
इन पद्यों से स्प्ष्ट उल्लेख मिलता है कि कर्ण को वेद,शास्त्र, अस्त्र आदि सारी विद्याओं की स्पष्ट शिक्षा दी गयी थी। कृष्ण कहते हैं कि कर्ण तुम सनातन वेदादि शास्त्रों को धर्मशास्त्रों को विधिवत पढ़े हुए हो ।
और जो द्रोण से परशुराम जी के पास जाने की कथा है,या जो लोग कहते हैं कि उसको भगा दिया गया था उनकी कपोलकल्पना का निराकरण यह है कि :- वह यह है कि अपने से 18-20 साल छोटे अर्जुन से ईर्ष्या, पांडवों से लगातार ईर्ष्या करते रहने के कारण , वह प्रायः पांडवों का अपमान दुर्योधन के साथ मिलकर करता रहता था, :-
स्पर्धमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रोऽत्यमर्षणः।
दुर्योधनं समाश्रित्य सोऽवमन्यत पाण्डवान्।।
– आदिपर्व
और एक दिन :–
विद्याधिकमथालक्ष्य धनुर्वेदे धनञ्जयम्।
द्रोणं रहस्युपागम्य कर्णो वचनमब्रवीत्।।
ब्रह्मास्त्रं वेत्तुमिच्छामि सरहस्यनिवर्तनम्।
अर्जुनेन समो युद्धे भवेयमिति मे मतिः।।
समः पुत्रेषु च स्नेहः शिष्येषु च तव ध्रुवम्।
त्वत्प्रसादान्न मा ब्रूयुरकृतास्त्रं विचक्षणाः।।
द्रोणस्तथोक्तः कर्णेन सापेक्षः फल्गुनं प्रति।
दौरात्म्यं चैव कर्णस्य विदित्वा तमुवाच ह।।
ब्रह्मास्त्रं ब्राह्मणो विद्याद्यथावच्चरितव्रतः।
क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात्कथंचन।।
इत्युक्तोऽङ्गिरसां श्रेष्ठमामन्त्र्य प्रतिपूज्य च।
जगाम सहसा राजन्महेन्द्रं पर्वतं प्रति।।
– शांतिपर्व
अर्थात एक दिन अर्जुन को धनुर्वेद में अधिक सक्षम देखकर कर्ण ने एकांत में जाकर द्रोण से कहा- मैं ब्रह्मास्त्र को छोड़ने और लौटाने के रहस्य को जानना चाहता हूं,मेरी इच्छा है कि मैं अर्जुन के साथ युद्ध करूँ, आप तो हम सभी शिष्यों और पुत्रों को समान रूप से मानते हैं, अतः कोई ये ना कहे कि आपका शिष्य सभी अस्त्रों को नहीं जानता। तो द्रोणाचार्य ने उसके अंदर छुपे हुए क्रूर ईर्ष्या भाव को पहचान लिया और कहा कि इसे ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ही सीख सकता है, तो द्रोण ने ब्रह्मचर्य की शर्त रखी, जिससे क्षुब्ध होकर कर्ण स्वयं सहसा महेंद्र पर्वत पर परशुराम जी के पास चला गया।
और भी बहुत है और लेख लम्बा ना हो ,इसलिए इस बिंदु पर इतना ही।
इसीतरह कर्ण दुर्योधन के द्वारा अंग देश का राजा नहीं बना था बल्कि जरासन्ध के अंगों की सन्धि चीरने पर कर्ण को जरासन्ध ने अपने अंग देश की मालिनी नगरी उसको दे दी थी। दरअस्ल अंग कभी हस्तिनापुर का अंग नहीं था। इसकेबाद वह चम्पानगरी में राज करने लगा दुर्योधन के कहने पर।
3- कर्ण ने द्रौपदी के स्वयंवर में बाक़ायदा भाग लिया था किंतु, धनुष पर प्रत्यंचा ही नहीं चढा सका था :-
ततस्तु ते राजगणा: क्रमेण कृष्णानिमित्तं कृतविक्रमाश्च।
सकर्णदुर्योधनशाल्वशल्य द्रौणायनिक्राथसुनीथवक्रा: ।
– आदिपर्व(स्वयंवर प्रसङ्ग)
कृष्णा (द्रौपदी) के निमित्त आने वालों में कर्ण भी था।
जब ये लोग धनुष की डोर नहीं चढा पाए तो अर्जुन को जाता देख लोग बोल उठे की जब कर्ण,शल्य आदि बलवान नहीं उठा पाए तो यह बालक कैसे उठाएगा,:-
यत् कर्णशल्यप्रमुखै: क्षत्रियैर्लोकविश्रुतै: ।
नानतं बलवद्भिर्हि धनुर्वेदपारायणै ।।
तत् कथं त्वतास्त्रेण प्राणतो दुर्बलीयसा ।
वटुमात्रेण शक्यं हि सज्यं कर्तुं धनुर्द्विजा: ।।
(आदिपर्व 187/4-5)
ऐसे ही:-
यत् पार्थिवै रुक्मसुनीथवक्रै: राधेयदुर्योधनशल्यशाल्वै: ।
तदा धनुर्वेदपरैर्नृसिंहै: कृतं न सज्यं महतोऽपि यत्नात् ।।
तदर्जुनो वीर्यवतां सदर्पस्तदैन्द्रिरिन्द्रावरजप्रभाव: ।
सज्यं च चक्रे निमिषान्तरेण शरांश्च जग्राह दशार्धसंख्यान् ।।
(आदिपर्व 187/19-20)
‘रुक्म ,सुनीथ ,वक्र ,कर्ण ,दुर्योधन ,शल्य तथा शाल्व आदि धनुर्वेद के पारंगत विद्वान् पुरुषसिंह राजालोग महान् प्रयत्न करके भी जिस धनुष पर डोरी न चढ़ा सके ,उसी धनुष पर विष्णु के समान प्रभावशाली एवं पराक्रमी वीरों में श्रेष्ठता का अभिमान रखने वाले इन्द्रकुमार अर्जुनने पलक झपकते ही प्रत्यञ्चा चढ़ा दी । इसके बाद पाँच बाण भी उन्होंने अपने हाथ में लिये ।’
इसी तरह इन्द्रप्रस्थ में जो घटना बताई जाती है कि द्रौपदी नेदुर्योधन को अंधे का बेटा अंधा कहा था, वो भी झूठ है,,, पर आज हमारा प्रतिपाद्य कर्ण है।
तो इस प्रकार आपने देखा कि कर्ण बड़े घर के आदमी थे, उनको वेद, शास्त्र, शस्त्र सब पढाया गया था। द्रौपदी के स्वयंवर में भी मौक़ा दिया गया था। कर्ण अर्जुन से 6 बार, भीम से 6 बार, गंधर्वों से , और अभिमन्यु से और कई राजाओं से हारे थे, अपने भाई को युद्ध मे मरता छोड़कर जान बचाकर भागे थे,इसके लिए अर्जुन ने उन्हें कोसा भी था,भीष्म ने डांटा भी था, की तुम्हारे युद्धकौशल की बस बातें ही बातें सुनी जाती हैं, तुम्हारा पराक्रम कभी दिखता नहीं है। आदि आदि, इन सबके उद्धरण देने पर बहुत लंबा होगा। आप स्वयं अध्ययन करके देख सकते हैं। अंतिम संस्कार वाली बात भी वैसी ही है,,बहुत से राजाओं की तरह उसके अंगों को भी चील कौवे खाते थे,सर पत्नी के सामने था,युधिष्ठिर ने अंत्येष्टि की थी।
पांडवों का हमेशा अपमान करना हुआ शौक़ था। द्रोण ने इस बात के लिए उसके डांटा भी था, विदुर ने भी उसे दुरात्मा कहा था। इन सबके भी स्प्ष्ट प्रमाण हैं, आप कहँगे तो दे दिया जाएगा।
4- द्रौपदी को खींचे जाते देख उसका प्रसन्न होना, द्रौपदी को वेश्या कहना, द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश देना:-
आजकल प्रगतिवादी क्रांतिकारी लोग कर्ण की अच्छाई करते नहीं थकते, क्या वे यह जानकर भी उसको क्रांतिकारी मानेगे की उसने एक अकेली मासिकधर्म के स्राव से युक्त स्त्री को भरी सभा मे नग्न करने का आदेश दिया था, उसको वेश्या कहा था, उसके अपमान पर हंसा था???
देखिये:-
दुःशासनश्चापि समीक्ष्य कृष्णामवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्
आधूय वेगेन विसंज्ञकल्पामुवाच दासीति हसन् सशब्दम् कर्णस्तु तद्वाक्यमतीव हृष्टः; संपूजयामास हसन्सशब्दम्
गान्धारराजः सुबलस्य पुत्रस्तथैव दुःशासनमभ्यनन्दत्
सभ्यास्तु ये तत्र बभूवुरन्ये; ताभ्यामृते धार्तराष्ट्रेण चैव
तेषामभूद्दुःखमतीव कृष्णां; दृष्ट्वा सभायां परिकृष्यमाणाम्
-सभापर्व (द्यूत प्रसङ्ग)
अर्थात द्रौपदी को अपने बेचारे दीन पतियों की ओर देखती हुई देख दुःशासन उसे बहुत तेज़ी से खींचकर झिटक कर बड़ी हंसी हंसते हुए द्रौपदी को “दासी-दासी” कहकर बोलने लगा। उस समय वह बेचारी विसंज्ञकल्पा (बेहोश) हो रही थी, इससे कर्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई, उसने ज़ोर ज़ोर से हंसते हुए दुःशासन के कथन की खूब प्रशंसा की, सुबल के बेटे गानधार के राजा शकुनि ने भी दुःशासन की सराहना की। उस समय वहां जितने भी सभा के लोग थे, उनमें से कर्ण,शकुनि और दुर्योधन को छोड़कर अन्य सभी को द्रौपदी की दुर्दशा देखकर बड़ा दुख हुआ।
बताइये,, ये था कर्ण का चरित्र।
ऐसे ही द्रौपदी को नग्न करने का आदेश कर्ण ने दिया:-
दुःशासन सुबालोऽयं विकर्णः प्राज्ञवादिकः
पाण्डवानां च वासांसि द्रौपद्याश्चाप्युपाहर
तच्छ्रुत्वा पाण्डवाः सर्वे स्वानि वासांसि भारत
अवकीर्योत्तरीयाणि सभायां समुपाविशन्
ततो दुःशासनो राजन्द्रौपद्या वसनं बलात्
सभामध्ये समाक्षिप्य व्यपक्रष्टुं प्रचक्रमे
–सभापर्व (द्यूत प्रसङ्ग)
अर्थात , कर्ण कहता है- हे दुःशासन! ये विकर्ण बहुत मूर्ख है,लेकिन फिर भी विद्वानों जैसा बनता है, तुम पांडवों और इस द्रौपदी के कपडे खींच कर उतार दो।
कर्ण की बात सुनकर सभी पांडव अपने उत्तरीय उतार कर बैठ गए, फिर दुःशासन ने भरी सभा मे द्रौपदी के कपड़े खींचने शुरू किये।
द्रौपदी खुद वनपर्व में इस बात की गवाही देती है कि सभा मे कर्ण ने उसकी हंसी उड़ाई थी:–
ये मां विप्रकृता क्षुद्रैरुपेक्षध्वं विशोकवत्
न च मे शाम्यते दु:खं कर्णो यत् प्रहसत् तदा
अर्थात द्रौपदी कहती है:- क्योंकि आप सब लोग, दुष्ट,नीच लोगों द्वारा किये गए मेरे अपमान की उपेक्षा कर रहे हैं, मानो आपको कोई दुख ही नही, उस समय कर्ण ने जो मेरी हँसी उड़ाई थी, उससे जो दुख मुझे हुआ है वह मेरे दिल से दूर नहीं होता।
इसी तरह कर्ण ने दुखी पांडवों पर हमले की योजना बनाई शकुनि के साथ मिलकर, और वनवास के दौरान द्रौपदी और पांडवों को कष्ट में देखकर उसने बहुत से खुशी वाले उद्गार व्यक्त किये हैं,, ये सारे श्लोक आप महाभारत में पढ़ सकते हैं। पर पढ़िए तो,, आपको नये नये कल्पनाशील उपन्यासकारों को से ही , सीरियल्स से ही फुर्सत नहीं। खैर आगे बढ़ते हैं,
5- कवच कुंडल के दान की कथा एक लेनदेन है:-
पहली बात तो यह कि वह कवच कुंडल पहन कर पैदा नहीं हुआ था, उसे कुंती ने उसकी सुरक्षा के लिए दिया था, जो कि उसके (कुंती) के पास था, ताकि वो बचा रह सके । और जो यह बात है कि जब उसने कवच कुंडल निकाला तो उसके शरीर से खून बहा, या कष्ट हुआ, क्योंकि उसने पहले ही इंद्र से कहा कि तब ही दूंगा जब ऐसा करोगे की निकलने में मेरा शरीर कुरूप ना हो जाये और कोई अंग कटे ना, तो इंद्र ने कहा ऐसा ही होगा, और उसी तरह हुआ,:-
उत्कृत्य तु प्रदास्यामि कुण्डले कवचं च ते।
निकृत्तेषु तु गात्रेषु न मे बीभत्सता भवेत् ।।
इन्द्र उवाच।
ते बीभत्सता कर्ण भविष्यति कथञ्चन।
ब्रणश्चैव न गात्रेषु यस्त्वं नानृतमिच्छसि ।।
-वनपर्व (कुंडलहरण)
और इसके पहले ही वह कह चुका था कि मुझे वह अमोघ शक्ति दीजिये जिससे मैं अपने प्रतापी शत्रु (अर्जुन) को मार सकूँ:-
एवमप्यस्तु भगवन्नेकवीरवधे मम।
अमोघां देहि मे शक्तिं यथा हन्यां प्रतापिनम् ।।
–वनपर्व (कुण्डलहण)
आलेख बहुत लंबा हो गया है, बहुत सी बातें हैं महाभारत एक अथाह सागर है, कर्ण प्रारम्भ से ही पांडवों का बहुत मज़ाक बनाता था,और अर्जुन से धनुर्वेद में प्रतिस्पर्धा की जलन और द्रौपदी स्वयंवर में धनुष ना चढ़ाना आदि उसको कुंठित कर चुके थे। पर दिनकर जी और शिवाजी सावंत ने अपने कविगत स्वातंत्र्य का प्रयोग करते हुए उसे महान बनाया। इसके लिए वे दोषी नहीं, क्योंकि साहित्यिक रचना में यह स्वतंत्रता होती है। दोषी पाठक वर्ग है, जो कि अपने देश, अपनी सभ्यता, अपने इतिहास को पढ़ता नहीं है, और जिस भाषा मे उसके ग्रन्थ हैं उसे हीन समझता है, इसीलिए गलत जानकारियों के गहन अंधकार में यूरोप की मिमिक्री करता हुआ मिथ्याभिमान में डूबा है। जागिये, संस्कृत पढ़िए, ताकि आपको कोई बरगला ना सके।
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