बिरसा मुंडा. झारखंड के मुंडा विद्रोह के नायक। इतिहास की किताबें कहती हैं कि इन्होंने आदिवासी समाज को संगठित किया, बाहरी ठेकेदार और अंग्रेज अफसरों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी। जिसे उलगुलान कहा गया। गिरफ़्तार हुए और जेल में ही संदिग्ध परिस्थितियों में शहीद हो गए।
पाठ्यपुस्तकों में बिरसा का जीवन परिचय सिर्फ़ इतना ही मिलता है।
बिरसा का महान व्यक्तित्व इन किताबों के चंद पन्नों में समेटा जा सके यह असम्भव है। झारखंड के खूंटी से ले कर उड़ीसा के सुंदरगढ़ तक गाये जाने वाले लोकगीतों में बिरसा का वो व्यक्तिव वो रूप झलकता है जो इन किताबों में नहीं गुना जा सका।
तब की बंगाल प्रेसीडेंसी में आने वाला उलिहातू गांव, साल 1875। वीरवार को पैदा हुए इसलिए घरवालों ने बिरसा नाम दिया। मुंडा बच्चे बचपन से खेतों में काम करते, नदी किनारे बांसुरी बजाते, बिरसा ने भी वही किया। पढ़ाई के लिए चाईबासा के गोस्सनर स्कूल गए। इस स्कूल में पढ़ने के लिए धर्मांतरण अनिवार्य था। बिरसा का भी धर्म बदला गया। नाम रखा गया डेविड पूर्ति (दाऊद)। इसी स्कूल में बिरसा ने अपने तेवर दिखाने शुरु कर दिए।
एक दिन पादरी ने कहा धर्मांतरण के बाद हम ने तुम आदिवासियों के लिए स्वर्ग के द्वार खोल दिये हैं। इतना सुनना ही था कि बालक बिरसा उठ खड़े हुए , कहा “हमारे अच्छे खासे स्वर्ग को लूट कर हमें नर्क जैसी ज़िंदगी दी , अब कौन सा स्वर्ग देने वाले हो?” वहाँ से जो अंग्रेज़ों से मोहभंग हुआ तो कभी पलटे नहीं।
अंग्रेजों ने फॉरेस्ट एक्ट के तहत सिंहभूम के जंगलों की बंदोबस्ती कर दी। आदिवासी ब्रिटिश सभ्यता से पूर्णतः अनभिज्ञ थे। कल तक जिन जंगलों के वे मालिक थे अब उन्हीं जंगलों में शरण के तौर पर पड़े रहे। प्लासी की पराजय के बाद से नवाबों और राजाओं का रुतबा कम हो चला था, लॉर्ड कार्नवालिस के भू प्रबंधन ने ज़मींदारी को जन्म दिया। इसका असर इन जगंलों पर भी पड़ा, आदिवासियों के सरदारों को ज़मीदार बना दिया गया।
समूचे आदिवासी क्षेत्र में ब्रिटिश तंत्र ने अपने दलाल घुसाए। उन्हें महाजन और व्यपारी कहा गया। मुंडा आदिवासियों की नज़र में ये महाजन या व्यापारी नहीं थे। उनके लिए ये ‘दिकू’ थे , जिन्हें मुंडा शायद डाकू कहना चाहते थे। ये दिकू आदिवासियों की खेती तबाह करते, उन से लगान वसूलते, ज़मीने हड़पते, उन्होंने आदिवासियों को गुलाम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। रही सही कसर बाहर से आ बसे लकड़ी और बीड़ी पत्ते के ठेके दारों ने पूरी कर दी।
सरदारों के संघर्ष की प्रभावहीनता और आदिवासियों की इस गुलामी से गिरते जीवन स्तर ने बिरसा का मन खिन्न कर दिया। बिरसा ने साल 1890 में ईसाई मिशन से सपरिवार नाता तोड़ दिया। एक साल बाद ही बंदगांव के जमींदार जगमोहन के वैष्णव मुंशी आनन्द पांडेय के सम्पर्क में आ गए। अन्य वैष्णव सन्तों से मिलते हुए बिरसा पर वैष्णव मत का प्रभाव पड़ा, वह भी वैष्णव बन गए। चंदन तिलक और जनेऊ धारण करते। उस समय सरदार अपनी जमीनों और जंगल के लिए संघर्षरत थे और बिरसा इसमें कूद पड़े।
बिरसा ने देखा कि लोग अनेक प्रकार की रूढ़ियों और अंधविश्वास से जकड़े हुए हैं। बिरसा ने प्रार्थना, पवित्रता और निष्ठा पर आधारित एक धर्म बनाया। बिरसा प्रवचन देते , उनके प्रवचन सुनने के लिए दूर दूर से लोग आते। उन के इस आत्मबोध ने जल्द ही किवदन्तियां प्रचलित कर दीं।कहा जाने लगा कि बिरसा रोगियों के रोग ठीक कर देते हैं, दुखियों का दुःख हर लेते हैं, उन्हें लोग धरती आबा और बिरसा भगवान कहने लगे गए।
धीरे धीरे बिरसा की यह प्रसिद्धि सरदारों तक भी पहुंची, मुंडा राज की प्रतिस्थापना के लिए बिरसा अब नेतृत्व में आ चुके थे। उन्होंने घोषणा कर दी कि अब किसी भी प्रकार का कोई कर नहीं दिया जाएगा। 8 अगस्त 1895 को बिरसा की गतिविधियों की जानकारी के लिए डिप्टी सुपरिटेंडेंट ने अपने चौकीदार को भेजा, बिरसा के अनुयायियों ने चौकीदार को बहुत मारा। 22 अगस्त को बिरसा की गिरफ्तारी के आदेश पुलिस सुपरिटेंडेंट मीयर्स को दिए गए। अगले ही दिन पुलिस रांची से चकदल की ओर निकल गई, बिरसा गिरफ़्तार हुए। जिस वक्त उन्हें गिरफ्तार किया गया वो सो रहे थे।
25 नवम्बर 1895 को उन्हें आई पी सी की धारा 205 के तहत सजा सुनाई गई। 2 साल कारावास और 50 रुपये जुर्माना दंड स्वरूप दिया गया। 30 नवम्बर 1897 को बिरसा रिहा हुए और फिर से अपने गांव चकदल आ गए।
जेल से लौटने के बाद बिरसा की ख्याति और भी ज़्यादा हो गई। इसी वक्त बोरोडीह में एक सभा का आयोजन किया गया। धार्मिक तथा राजनैतिक संगठन की नई तैयारी शुरू हुई। बिरसा कई जगहों की यात्रा पर निकले । 1898 में चुटिया के मंदिर में सामाजिक बराबरी का आह्वान किया।
जब लोगों में अपनी आदिवासी अस्मिता को ले कर आत्मविश्वास और स्वाभिमान भर गया,तब बिरसा ने “उलगुलान” यानि कि विद्रोह का आह्वान किया। वो 1899 के क्रिसमस का वक़्त था। नारा दिया : अबुआ दिशोम रे अबुआ राज। (अपनी धरती अपना राज)
कई जगहों पर अंग्रेज़ सरकार तथा उनके ठेकेदारों पर एक साथ हमला शुरू हुआ. सरकार ने काफी निर्दयता से इस विद्रोह को कुचलने का प्रयास किया. पहाड़ियों पर लाशें बिखरीं रहतीं । बिरसा के बारे में सूचना देने के एवज में भारी नकद का ऐलान हुआ, 500 रुपये इनाम रख गया।
किसी के लिए इस इनाम का लालच अपने नेता से ज़्यादा बड़ा निकल गया, अंततः बिरसा मुंडा अपने ही एक साथी की ग़द्दारी से गिरफ्तार किए गए और 9 जून 1900 को जेल में ही रहस्यमयी रूप से उनकी मृत्य हो गई. माना जाता है उन्हें ज़हर दिया गया था।
अपनी अल्प आयु में लोगों के अंदर विश्वास और शक्ति का संचार करते हुए उन्हें अपनी धरती को बचाने का संदेश दिया । बिरसा असल मायने में धरती आबा थे।
उन्होंने अपने जीवन के मात्र 25 वसंत देखे। जो अपने लोगों में “सिंह बोंगा” यानी स्वयं भगवान सूर्य का रूप माना जाता था आज वह समाज मे कहाँ है?
बापू लिखो तो गूगल झट से महात्मा गांधी की तस्वीर दिखाता है, गुरुदेव लिखो तो टैगोर की, लौह पुरुष लिखो तो सरदार वल्लभ भाई पटेल की तस्वीर सामने आ जाती है मगर “धरती आबा” लिखने पर आती है धरती आबा सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेन की तस्वीर।
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