“इंडिया रिपब्लिक बनने जा रही है पर इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के संचालक चंद्रशेखर आजाद को लोग भूल गए।आजाद हुए देश में माताजी की सुध लेने वाला कोई नहीं है।उनकी आंख में मोतियाबिंद उतर आया है और फैलता जा रहा है। उससे आंख सालभर चल जाए तो बहुत है। अभी-अभी संयुक्त प्रांत सरकार ने आजाद की माता जी को 25 रुपए महीने की पेंशन कर दी। पर दुर्भाग्य की बात है कि 18 वर्ष भूखों मरने के बाद जब पेंशन की बारी आई तो माता जी की भूख ही जाती रही और बूढ़े आदमी की भूख का घटना उसके अंतिम दिनों के आगमन की सूचना है।”
1949 में भाभरा से लौटते वक़्त पण्डित बनारसी दास चतुर्वेदी ने यह संस्मरण चन्द्रशेखर आज़ाद की माता जी से मिलने के बाद लिखा था। आज़ाद को शहीद हुए 18 वर्ष हो चुके थे और उन की माता जी तब भी उनकी प्रतीक्षा कर रहीं थीं। आज बात उन्हीं चन्द्रशेखर आज़ाद की जिनकी प्रतिज्ञा के आगे अंग्रेज सरकार हार गई।
चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाभरा गांव में हुआ था। पिता पण्डित सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी बड़े सरल व्यक्तित्व के थे, उनकी ज़्यादा आकांक्षाएं नहीं थीं मगर वे आज़ाद से बड़ा प्रेम करते थे।
बचपन से ही आज़ाद स्वतंत्रता प्राप्ति की राह में उतरने के लिए लालायित रहते थे। 1920 में महज 14 वर्ष की उम्र में ही आज़ाद महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़े थे और 1921 में पिकेटिंग के आरोप में पहली बार गिरफ़्तार किये गए। उन पर मुकदमा चला, 16 साल के आज़ाद पर। अदालत ने बालक चन्द्रशेखर से पूछा “तुम्हारा नाम क्या है?” चन्द्रशेखर ने निर्भीकता से जवाब दिया “आज़ाद” , पिता का नाम “स्वाधीनता” पता “जेल ख़ाना” । ये उत्तर मजिस्ट्रेट को चिढ़ाने के लिए काफी थे, आज़ाद को 15 बेतों की सज़ा मिली , हर पड़ती बेंत के साथ आज़ाद महात्मा गांधी की जय, और भारत माता की जय के नारे लगाते।
इस आंदोलन के समय वे वाराणसी में थे, इस के पहले वे मुम्बई में थे और वहाँ से ऊब कर ही बनारस आये थे। और शिवविनायक मिश्रा की सहायता से उन्हें संस्कृत विद्यालय में प्रवेश मिल गया।
1922 में काशी विद्यापीठ में ही आज़ाद की मुलाक़ात श्री मनमन्नाथ गुप्त एवं प्रणवेश चटर्जी से हुई। यह दोनों पहले से ही क्रांतिकारी दल का हिस्सा थे और इन्होंने ने ही आज़ाद को भी दल में सम्मलित कर लिया। अपनी ऊर्जा और जोश की वजह से आज़ाद दल में बने रहे और पार्टी जहां कहीं भी ऐक्शन लेती वहाँ आज़ाद को भेजा जाता । पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के साथ कई बार डकैतियों में आज़ाद शामिल रहे और जब बात इन डकैती की हो तो काकोरी की बात करना ज़रूरी हो जाता है।
बकौल शिव वर्मा “घटना 9 अगस्त, 1925 की है। लखनऊ से पश्चिम की ओर के छोटे जंक्शन स्टेशन पर आठ डाउन पैसेन्जर के सेकेण्ड क्लास में तीन नौजवान सवार हुए यह थे अशफाकुल्ला ख़ाँ, शचीन्द्रनाथ बख्शी और राजेन्द्र लाहिड़ी। इन्हें निश्चित स्थान पर जंजीर खींचकर गाड़ी रोकने का काम सौंपा गया। दल के बाक़ी सात व्यक्ति ( रामप्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, मुकुन्दी लाल, चन्द्रशेखर आज़ाद, बनवारी लाल और मन्मथनाथ गुप्त) थर्ड क्लास में सवार हुए। इनमें से कुछ को गार्ड तथा ड्राइवर को काबू करने का काम सौंपा गया और बाक़ी लोगों को गाड़ी के दोनों ओर पहरा देने तथा खजाने का अधिकार करने का काम दिया गया।
जंजीर खिंची और गाड़ी निश्चित स्थान पर खड़ी हो गयी अँधेरा हो चला था। योजना के अनुसार गार्ड और ड्राइवर पेट के बल लिटा दिये गये और रुपयों की तिजोरी नीचे उतार ली गयी। गाड़ी रुकते ही यह घोषणा भी कर दी गयी कि यह काम क्रान्तिकारी दल का है और वे केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, किसी मुसाफिर के माल पर हाथ लगाना उनका उद्देश्य नहीं है। सुरक्षा के ख्याल से गाड़ी के दोनों तरफ़ दो साथियों को माउज़र पिस्तौल के साथ तैनात कर दिया गया था।”
इस घटना के बाद से ही क्रांतिकारियों की धर पकड़ की जानी शुरू कर दी गई। एक एक कर दल के सभी बड़े क्रांतिकारी पकड़े जाने लगे थे,किसी को उम्र क़ैद तो किसी को फ़ांसी हो रही थी मगर आज़ाद नाम के अनुरूप ही रहे, आज़ाद! उन्हें पकड़ा नहीं जा सका। वे झाँसी चले गए और बार बार जगह बदलते रहे।
सांडर्स हत्याकांड के बाद आज़ाद भगत सिंह और दुर्गा भाभी के साथ लाहौर से भी भाग निकले थे। इस काम के वक़्त उन्होंने ब्रम्हचारी का भेष बनाया हुआ था।
आज़ाद और नेहरू की मुलाक़ात
साल 1931 में चंद्रशेखर आज़ाद ने आनंद भवन में जवाहर लाल नेहरू से एक गुप्त मुलाक़ात की।
जवाहर लाल नेहरू अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं, ‘मेरे पिता की मौत के बाद एक अजनबी शख़्स मुझसे मिलने मेरे घर आया।मुझे बताया गया कि उसका नाम चंद्रशेखर आज़ाद है।मैंने इससे पहले उसे देखा नहीं था, लेकिन दस साल पहले मैंने उसका नाम ज़रूर सुना था, जब वो असहयोग आँदोलन के दौरान जेल गया था। वो जानना चाहता था कि अगर सरकार और कांग्रेस के बीच समझौता हो जाता है, तो क्या उन जैसे लोग शाँति से रह सकेंगे। उनका मानना था कि सिर्फ़ आतंकवादी तरीक़ों से आज़ादी नहीं जीती जा सकती और ना ही आज़ादी सिर्फ़ शाँतिपूर्ण तरीकों से आएगी।
एक और स्वतंत्रता सेनानी और हिंदी साहित्यकार यशपाल जो उस समय इलाहाबाद में थे, उन्होंने अपनी आत्म-कथा ‘सिंहावलोकन’ में लिखा कि ‘आज़ाद इस मुलाक़ात से ख़ुश नहीं थे, क्योंकि नेहरू ने ना सिर्फ़ आतंकवाद की उपयोगिता पर संदेह ज़ाहिर किया था, बल्कि एचएसआरए संगठन की कार्यशैली पर भी सवाल उठाये थे। हालांकि, बाद में मैं नेहरू से मिला था जो मेरे और आज़ाद के रूस जाने का ख़र्चा देने के लिए तैयार हो गए थे।
अल्फ्रेड पार्क , 27 फरवरी 1931
यह दिन आज़ाद का आखिरी दिन था, नेहरू से मिलने के क़रीब एक सप्ताह बाद 27 फ़रवरी, 1931 को आज़ाद इलाहाबाद के एल्फ़्रेड पार्क में अपने साथी सुखदेवराज के साथ बैठे बात कर रहे थे कि सामने की सड़क पर एक मोटर आकर रुकी, जिसमें से एक अंग्रेज़ अफ़सर नॉट बावर और दो सिपाही सफ़ेद कपड़ों में नीचे उतरे।
सुखदेवराज लिखते हैं, ‘मोटर खड़ी होते ही हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए सीधा हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से अंग्रेज़ी में पूछा, ‘तुम लोग कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?’ आजाद का हाथ अपनी पिस्तौल पर था और मेरा अपनी. हमने उसके सवाल का जवाब गोली चलाकर दिया। मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले चली और उसकी गोली आज़ाद की जाँघ में लगी, वहीं आज़ाद की गोली गोरे अफ़सर के कंधे में लगी।दोनों तरफ़ से दनादन गोलियाँ चल रही थीं।अफ़सर ने पीछे दौड़कर मौलश्री के पेड़ की आड़ ली। उसके सिपाही कूद कर नाले में जा छिपे. इधर हम लोगों ने जामुन के पेड़ को आड़ बनाया।एक क्षण के लिए लड़ाई रुक सी गई. तभी आज़ाद ने मुझसे कहा मेरी जाँघ में गोली लग गई है। तुम यहाँ से निकल जाओ।
चंद्रशेखर पर प्रमाणिक क़िताब ‘अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद’ लिखने वाले विश्वनाथ वैशम्पायन लिखते हैं, ‘सबसे पहले डिप्टी सुपरिंटेंडेंट विशेश्वर सिंह ने एक व्यक्ति को देखा जिसपर उन्हें चंद्रशेखर आज़ाद होने का शक़ हुआ. आज़ाद काकोरी और अन्य मामलों में फ़रार चल रहे थे और उनपर 5,000 रुपये का इनाम था।विशेश्वर सिंह ने अपनी शंका सीआईडी के लीगल एडवाइज़र डालचंद पर प्रकट की। वो कटरे में अपने घर वापस आये और आठ बजे सवेरे डालचंद और अपने अरदली सरनाम सिंह के साथ ये देखने गये कि ये वही आदमी है जिसपर उन्हें आज़ाद होने का शक़ है।
‘उन्होंने देखा कि थॉर्नहिल रोड कॉर्नर से पब्लिक लाईब्रेरी की तरफ़ जो फ़ुटपाथ जाता है, उस पर ये दोनों बैठे हुए हैं। जब उन्हें विश्वास हो गया कि ये आज़ाद ही हैं तो उन्होंने अरदली सरनाम सिंह को नॉट बावर को बुलवाने भेजा, जो पास में एक नंबर पार्क रोड में रहते थे।
बाद में नॉट बावर ने एक प्रेस वक्तव्य में कहा, ‘ठाकुर विशेश्वर सिंह से मेरे पास संदेश आया कि उन्होंने एक व्यक्ति को एल्फ़्रेड पार्क में देखा है जिसका हुलिया चंद्रशेखर आज़ाद से मिलता है. मैं अपने साथ कॉन्स्टेबल मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह को लेते गया। मैंने कार खड़ी कर दी और उन लोगों की तरफ़ बढ़ा।क़रीब दस गज़ की दूरी से मैंने उनसे पूछा कि वो कौन हैं? जवाब में उन्होंने पिस्तौल निकालकर मुझपर गोली चला दी।
‘मेरी पिस्तौल पहले से तैयार थी। मैंने भी उस पर गोली चलाई. जब मैं मैग्ज़ीन निकालकर दूसरी भर रहा था, तब आज़ाद ने मुझपर गोली चलाई, जिससे मेरे बाएं हाथ से मैग्ज़ीन नीचे गिर गई।तब मैं एक पेड़ की तरफ़ भागा. इसी बीच विशेश्वर सिंह रेंगकर झाड़ी में पहुँचे। वहाँ से उन्होंने आज़ाद पर गोली चलाई।जवाब में आज़ाद ने भी गोली चलाई जो विशेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।
काफ़ी देर तक लड़ने के बाद आज़ाद ने स्वयं को ही गोली मार ली, वो आज़ाद रहे, उन्होंने कहा था उनका घर जेलखाना है पर वे कभी जेल नहीं गए, पकड़े नहीं गये।
आज़ाद के शव की तलाशी लेने पर उनके पास से 448 रुपये और 16 गोलियाँ मिलीं।
यशपाल अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं कि ‘संभवत आज़ाद की जेब में वही रुपये थे जो नेहरू ने उन्हें दिये थे।
शिव वर्मा की किताब में संस्मृतियाँ में वो आज़ाद को याद कर के लिखते हैं-
पन्द्रह साल बाद
इलाहाबाद, 8 मार्च, 1946
यहाँ एक सार्वजनिक सभा में भाग लेने आया था। मीटिंग आरम्भ होने में अभी कुछ देर थी। “चलिये तब तक कहीं घूम आवें”, प्रो. नरवणे ने कहा। इतने दिनों के बाद (लगभग 17 वर्ष) जेल से बाहर आने पर यदि कोई प्रस्ताव सबसे प्रिय लगता है तो यही घूम आने का प्रोफेसर की सूझ की तारीफ करते हुए हम लोग घूमने चल दिये। कुछ देर तेज़ी के साथ चलने के बाद कार एक बहुत बड़े बाग की ओर मुड़ी। बाग की लम्बी सड़कों पर दो-एक चक्कर लगा कर प्रोफेसर ने एक स्थान पर मोटर रोक दी। गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए उँगली से थोड़ी दूर पर इशारा करके उन्होंने कहा, “उस जगह पर आज़ाद की मृत्यु हुई थी। यह अल्फ्रेड पार्क है।”
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